सोमवार, 11 नवंबर 2013

कवि लच्छी राम रचित - बिग्गैजी रौ छंद

बिग्गैजी रौ छंद
सिंवरूं देवी सारदा, लुळहर लागूं पाय।
बिगम हुवौ बीकांण गढ, सोभा देवूं बताय।
कियौ रड़ाकौ राठ सूं, सांभळजो लिग-लाय।।

सिंवरूं गणपत देव नै, लेसूं निजपत नांव।
सारद सीस निंवाय कै, करसूं कथणी काम।।

बीदो बीको राजवी, गढ बीकांणौ गांव।
जूना खेड़ा प्रगट किया, इडक बिगौ है धाम।।

रूघपत कुळ में ऊपन्यौ, भागीरथ वंस मांय।
मामा गोदारा भीम-सा नानौज चूहड़ नांव।।

माता देवी सुलतानवी, मेंहद पिता कौ नांव।
रिड़ीज गढ रौ पाटवी, परण्यौ मालां रै गांव।।

धिन कर चाल्यौ सासरै नाई-ज लिया बुलाय।
कंगर कढाई कोरणी, कपड़ा लिया सीवाय।।

कंचण कंठी सोवणी, गळ झगबग मोती झाग।
महिमा जरी जड़ाव की, माथै कसूंमल पाग।।

धिन कर चाल्यौ सासरै मात पिता अरू मेहंद।
कमेत घोड़ी बोघणी, बण्यौ पूनम कौ चंद।।

उठै राठ की हुई चढ़ाई, क्या दिल्ली क्या तखत हजारौ।
क्या मक्का क्या बलख बुखारौ, चढ्यौ राठ कर कर हौकारोै।।

सिंवर मीर पीर पट्ठाण, ध्यांन मैमंद का धर रे।
किसौ मुलक लूं मार किसौ-यक छोडूं थिर रे।।

कहै राठ इक बात, कह्यौ थे हमरौ करौ।
मार जाट का लोग, डेरा जसरासर धरौ।।
डावी छोड दौ जखड़ायण, जीवणी नागोरी गउवां घेरौ।।

चढ्यौ राठ कौ लोग सुगन ले बोल झड़ाऊ।
फिर्या सिंघ सादूळ, सुगन वै हुवा पलाऊ।।


दोहा :-
गउवां अनमी ले चढ्या, साळा-ज कहग्या बात।
रजपूती धन बांकड़ौ, जाखड़ ओंटीली जात।।

हुई रसोई चढ गयौ, गउवों घेर्यां-ईज धीर।
कमर कस कसणा कस्या, हाथां लीवी समसीर।।

कहै सासू सळायली, पाछा बुलावौ घेर।
हुई रसोई जीमल्यौ, वारां चढ़जौ फेर।।

जिण घर बांधी कांबड़ी, मांय सतवंती घर नार।
बंधी कमरां नीं खुलै, म्हांरौ धरती न झेलै भार।।

पिता हमारौ मेहंद है, वा सुलतानी घर माय।
गउवां घेरियां बिन कुरळौ करूं, म्हा रो सत्त धरम घट जाय।।

जरणी जायो अेकलौ, चढ्यौ गउवां घेरण लार।
कांकड़ कोस पैंतीस पर, जा पूग्यौ भड़ वार।।

राठ पूठौ मुड़ देखियौ, मन में कियौ विचार।
कमेत घोड़ी बौघणी, हाथ लियां तरवार।।

कहै राठ इक बात, कह्यौ थूं हमरौ कर रे।
आयौ छै थूं वार, घोड़ी ले जै नीं घर रे।।

कहै बिगम दे बात, घोड़ी ले घर नीं जाऊं।
मार तुम्हारौ लोक, गउवां पाछी ले जाऊं।।

घोड़ां दीन्हा भेळ, किया कर कर ललकारा।
हाथ लीवी कर ढाल, काढ ली खड्ग तरवारा।।

भाज गयौ सब राठ, भाजग्या न्यारा न्यारा।
मिळी न पाछी गैल, मनोरथ बिखरîा सारा।।

रिळ मिळ कियौ विचार, सुगन सादूळ का।
बेटा पोता आंण पूग्या, कोई लहर लाछूर का।।

लावा की डांड सूं, गउवां तौ घिरगी, बाछड़ा  मिळगी, जाट कौ पुत्र क्यूं लारै आवै।
म्हे नहीं दूहता, बाळका पीवता, उठै बिगम दे आसीस पावै।।

राठ के संग में सैंस नर सूरा, सैंस ही बांण कबांण बावै।
पाप का बांण तौ फूस की फांस ज्यूं, चालती पून में बूवा ही जावै।।
सत को पोरस्यौ धरम की वार में, अेकलौ एक ही बाण बावै।
बिगै का बाण तौ ब्रह्मा की सगत ज्यूं, छूटतां पांण अेक मौत ही चावै।।
छेहला भड़ पांच भिड़्या रणखेत, छठा बिगमदे बैकुंठ जावै।।

छंद भुजंगी :-
लियां भड़ देह पिंडां इक ढांण।
घोड़ी चल आई सागण ठांण।।

धीणै धणियाप बैठी कर थाट।
अटेरण ऊन अटेरण हाथ।।
रळै दोय नार करै आ ही वात।
 बिगैजी गयां नै हुवा दिन च्यार।।

घोड़ी आंण फिरी माता के बार, नैणां भर नीर, पूठै जूंझार।।
जळंतां पेट दियौ फिटकार, कठै गंवायौ थैं बिगौ असवार।।

घोड़ी रीस करी, उतराद चली।
पलकां में कोस पंजार पड़ी।।
पड़ती लोथ हुवौ जूंझार।
माता सोच कियौ है विचार।।
मगर पचीसां हुवौ मोटियार।
 सासरै जाय, गउवां कै लार।।
छोटकी दाईं बजाई थैं वार।
हुवौ कुळ देव बडौ जूंझार।।
हुवौ न को होसी इसौ कोई जाट।
 बुवौ न को बैसी लखावट वाट।।
खेवौ नीं धूप करौ नीं गैगट्ट।
 कीवी जखड़ांयण देसां प्रगट्ट।।

आवै जग-लोक झड़त कळंक।
हुवौ कुळदेव बडौ निकळंक।।

भणै लछीराम, आ म्हारी अरज।
दुख दाळद दूर करौ नीं दरद।।

दोहा :-
कंचन सेती देवळी, सब जुग लेसी नांव।
रिड़वी गढ रौ पाटवी, कियौ बिगै नै धांम।।
नव लख जोगण सुरग में, हरि आगै जोड़ै हाथ।
ठाली ठीकर ठण-हणै, म्हांने छूटी दौ रुघनाथ।।
ले छूटी रुधनाथ सूं, गई अठारह खूर, अठारै सै उगणीसै, साकौ बूवौ भरपूर।
जखड़ांयत रा जाखड़ां, थां सूं दादै टाळ्यौ दूर।।
विप्र तुम्हारौ तावणियौ, थे जाखड़ भरपूर।
सौअे कोसे रिच्छा करौ, हिन्दवाणी रा सूर।।
उगणीसौ संवतां तणौ, बरस इकीसौ साल।
काती मास तिथ तेरसां, वार सनीचर वार।।
राजा तौ रतनसिंघ, सिरदारसिंघ राजकंवार।
धरमी बैठा पाटवी, भली बजाई वार।।
बड़ौ भाई सदासुख, पिता नांव श्रीराम।
सिंवर देवी सुलतानवी, औ छंद कह्यौ लछीराम।।
।। इति संपूर्णम् ।।
(नंद भारद्वाज की पुस्तक ‘पं लच्छीद राम कृत ‘करण कथा’ – एक विवेचन’ से साभार)