
सभी गायों को वापिस चलाने का काम पूरा होने ही वाला था कि एक राठ ने धोके से आकर पीछे से बिग्गाजी का सर धड़ से अलग कर दिया. आशोज शुक्ला त्रयोदशी को बिग्गाजी ने देवता होने का सबूत दिया था. वहां पर उनका चबूतरा बना हुआ है. उसी दिन से वहां पर पूजापाठ होने लगी.बिग्गाजी १३३६ में वीरगति को प्राप्त हुए थे. इस स्थान पर एक बड़ा भारी मेला लगता है. लोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर बिग्गाजी के नाम की मोली गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में भादवा सुदी १३ को ग्राम बिग्गा व रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में मेले भरते हैं जहाँ हरियाणा, पंजाब,उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है.
वीर श्री तेजाजी-तेजाजी मुख्यत: राजस्थान के लेकिन उतने ही उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और कुछ हद
तक पंजाब के भी लोक-नायक हैं।राजस्थानी का ‘तेजा’ लोक-गीत तो इनमें शामिल है ही। वे इन प्रदेशों के सभी समुदायों के आराध्य हैं। तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुवार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार २९ जनवरी, १०७४ , को धोलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे।
लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं। स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प-दंश से ही हुई थी। बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार की मार से अक्षत् नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखन को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख कर उनके प्राण हर लिए थे। तेजाजी का निर्वाण दिवस भादवा सुदी १० संवत ११६०, तदानुसार २८ अगस्त ११०३ , माना जाता है ।
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