मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

खजवाना जिला नागौर के संत श्री 1008 लिखमा बाबा महाराज

                                                                                           जाखड़ शिरोमणि दर्शन :-ओमप्रकाश बागड़वा 
                                               "संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय
                                                सुत दारा घर लक्ष्मी पापी के भी होए"
मानव का सांसारिक जीवन में अवतरण आत्म कल्याणार्थ होता है परंतु माया के वशीभूत होकर आत्म कल्याण को मार्ग से मानव विचलित हो जाता है l पूर्व जन्म के संचित कर्मों के कारण मानव को मायाजाल के बंधनों से मुक्त रखकर जीवन कल्याण के मार्ग की ओर बढ़ने को प्रेरित करते हैं। जीवन की सच्चाई यह है कि प्राणी एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है तब पूर्व जन्म के यात्रा वृत्तांत को विस्मृत कर देता है अर्थात भुला देता है उसे केवल वर्तमान जीवन के क्रियाकलापों की पृष्ठभूमि बनाने को प्रेरित रहते जीवन सफर पूरा करना होता है l इस जगत में कुछ ऐसे विरले संत महापुरुष, इतिहास पुरुष हुए हैं जिन्होंने अध्यात्मिक साधना, आर्थिक जगत, सामाजिक क्षेत्र, सैन्य जीवन में अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हुए इतिहास के पन्नों पर अपनी कर्म गाथा को सिर्फ इस रुप में रच देते हैं कि वह अमिट हो जाता है। गांव बिग्गा जिला बीकानेर से एक जाखड़ परिवार खजवाना आकर बस गया, बिग्गा से खजवाना जाकर बसा श्री मगा राम जाखड़ का परिवार। इनके घर में तीन पुत्र रत्न-नन्दाराम, तुलछा राम व लिखमा राम और एक पुत्री केसर का जन्म हुआ l यह देव योग कहें या पूर्व जन्म के संचित कर्म कि श्री मगा राम जाखड़ के घर तीनों पुत्रों में से एक पुत्र लिखमा राम जाखड़ बचपन से ही संत महापुरुषों का सानिध्य पाने को लालायित रहने लगे । स्थानीय क्षेत्र में उन्हें ऐसा कोई संत पुरुष नहीं मिला जो उनकी जिज्ञासा को सही दिशा दे सके तब उन्हें 12 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर देवभूमि उत्तराखंड की ओर पलायन करना पड़ा। समर्थ सदगुरु से ज्ञान ग्रहण किया, संसारिक मोह माया से विमुक्त होने का ज्ञान पाया, अलौकिक शक्ति से ग्रहण ज्ञान को समझ लेने के बाद करीब 25 वर्ष की अवस्था में पुनः अपनी जन्मस्थली खजवाना जिला नागौर लौट आए। गांव की सरहद में एक पीपल के पेड़ के नीचे तपश्चर्या में बैठ गए। यह घटना खजवाना वासियों के लिए एक अबूझ पहेली बन गई। वार्ता चर्चा से पता लगा कि यह संत लगभग १२-१३ वर्ष पूर्व यहां से पलायन कर गया बालक लिखमाराम है, घर परिवार के सदस्यों को तो खुशी हुई। पूरे गांव में दिवाली सा वातावरण बन गया l उनके स्वागत सत्कार में परिवार जनों ने,ग्राम वासियों ने 56 भोग बनाए। बालक लिखमाराम से सन्यासी बने संत श्री लिखमाराम ने इन भोज्य पदार्थों को अस्वीकार करते हुए परिवारजनों, ग्राम वासियों से कहा कि फकीरी जीवन में 56 भोज का कोई महत्व नहीं है। जीवन चलाने के लिए रुखा सूखा जो मिल जाये प्रयाप्त है, जिस पीपल के पेड़ के नीचे संत श्री लिखमाराम विराजे। कालांतर में वहां भव्य मंदिर बन गया l पास में ही कोलायत नाडी के नाम से छोटा जलाशय था, बस वही नाडी संत श्री लिखमाराम के लिए गंगोत्री और यमुनोत्री थी। संत तपस्या में प्रवृत रहते कभी-कभार ग्राम वासियों से परिचर्चा करते हुए लौकिक -पारलौकिक ज्ञान का उपदेश देते और जीव मात्र के उद्धार में अपने आप को समर्पित किए समय की गति के साथ तालमेल बिठाएं चलते रहे। जब वे भोजन करते थे तो उनके साथ आश्रम की बिल्लियां, आश्रम के कुत्ते अन्य पंछी एक साथ आ बैठते थे और संत प्रवर को इन जीवों से कोई परहेज नहीं था। उनका मानना था, जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है। जीव योनी से अलग होने से आत्म रूप ,परमात्म तत्व से भेद कैसा ?


ग्राम वासियों और परिवार जनों के लिए यह कौतूहल का विषय था ,इनके आश्रम में जब तक कोई जीव भूखा रहता था ,तब तक आप स्वयं प्रसादी नहीं पाते थे।
यह कहा जाता है कि एक देवासी की ऊँटनी को चर्म रोग हो गया, लाखों प्रयासों के बावजूद ठीक नहीं हो रही थी तब उसे वह देवासी कोलायत नाडी आश्रम में संत शरण में छोड़ गया, कुछ दिनों बाद ऊँटनी ठीक हो गई और बिन ब्याही ऊंटनी दूध भी देने लगी। यह देख देवासी का मन ललचाया, वह चोरी से ऊँटनी को वापस अपने घर ले जाने का मन बना कर आया, पर ऊँटनी को घर नहीं ले जा पाया। ऊँटनी अप्रत्यक्षत उसकी नजरों के सामने दिखाई दे रही थी पर वास्तव में वह ऊँटनी की प्रतिछाया मात्र थी। अतः हताश निराश होकर देवासी घर लौट गया। तब से गांव में संत प्रवर के प्रति लोगों में श्रद्धा भाव बढ़ने लगा और रोग ग्रस्त पशुओं को लोग वहां लाने लगे जो भभूत मात्र से अथवा परिक्रमा देने से ठीक हो जाते थे। अधिक दूरी से जो पशुपालक अपने पालतू पशुओं को वहां लाने में समर्थ नहीं होते थे वे पशुओं को बांधने की सांकळ अर्थात रस्सी को वहां लाकर पूजा स्थल की भभूत लगाने, रस्सी को परिक्रमा दिलाने से पशु ठीक हो जाते रहे। मूक पशुओं के प्रति कितना गजब का उपकार भाव संत प्रवर में देखने को मिलता है इन चमत्कारों की जानकारी गांव के वृद्धजनों के मौखिक वार्तालाप से मिलती है।
लगभग विक्रम संवत 1980 में 70-80 वर्ष की अवस्था में आप श्री वैकुण्ठ धाम के लिए समाधिस्थ हो गए.
इतना ही नहीं चैत्र शुक्ला त्रयोदशी अर्थात चैत्र सुदी तेरस को डूंगरगढ़ स्थित बिग्गा गढ़ धाम की तर्ज पर यहां भी भव्य जन मेला आयोजित होता है। हजारों की संख्या में श्रद्धालुजन अपनी मनौती मनाने यहां उपस्थित होते हैं, यहां लोगों का यह भी मानना है कि कोई पीलिया रोगी यहां आकर कोलायत नाडी का जल मंदिर स्थित संत चरण पर प्रवाहित कर पुनः अपने बर्तन में लेकर आचमन करते हैं अर्थात पीते हैं तो पीलिया रोग जड़ से मिट जाता है और उस व्यक्ति को जीवन में फिर कभी पीलिया रोग होता ही नहीं है, ऐसे पूजा स्थल जनमानस की निगाहों में चारधाम, सातों पुरियों से कम नहीं है।
इसे विडंबना ही कहें कि उस काल में जाट समाज में शिक्षा का इतना प्रचार-प्रसार नहीं था इसलिए ऐसे महापुरुषों की चमत्कारिक जीवन लीला का जीवन वृतांत लेखनी बद्ध नहीं किया जा सका। वर्ग विशेष के जो लोग साक्षर थे। जीवन इतिहास लिखने में सक्षम थे, उन्होंने इस ओर कलम चलाना अपनी नीति के अनुकूल नहीं माना, क्योंकि उनमें एक छिपा भय था कि यदि जाट संतों को महिमामंडित किया तो हमारे आका रुष्ट हो जाएंगे। जाट अनपढ़ थे तो हम बेचारे ढाढियों की बिसात ही क्या ?
पर आज जो दंतकथाओं, लोक धारणाओं में जो चर्चाएं वार्ताएं सुनने को मिलती है उन्हें लेखनी बद्ध कर पाठक वर्ग के सम्मुख प्रस्तुत करने का काम आपका सेवक मैं ओमप्रकाश बागड़वा कर रहा हूं , मुझे संत प्रवर के अवतरण से लेकर चमत्कारिक जीवनशैली और जीवन इतिहास का वृतांत विवरण जो वार्ताओं चर्चाओं से मिला उनमें श्री जगाराम पुत्र श्री रामदेव , श्री भंवरू राम पुत्र श्री सांवता राम, श्री राम निवास पुत्र श्री जाला राम की महती भूमिका रही। इन्होंने जो ज्ञान अपने पूर्वजों से संत श्री लिखमाराम जी के बारे में प्राप्त किया, वही ज्ञान अपने श्री मुख से दंतकथा के रूप में मुझे कहा, सुनाया। विगत वार हुए चमत्कारों और संतप्रवर के जीवन दर्शन का जो चित्रण इन सज्जनों के श्री मुख से सुनने को मिला, वह ओमप्रकाश बागड़वा की कलम से जाखड़ शिरोमणि दर्शन में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें