मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

गोरक्षक लोक देवता वीर बिग्गा जी का मेला 13 अक्टूम्बर को


"आप सभी सपरिवार मेले में सादर आमंत्रित है"
रूघपत कुळ में ऊपन्यौ, भागीरथ वंस मांय।
मामा गोदारा भीम-सा नानौज चूहड़ नांव।।
माता देवी सुलतानवी, मेंहद पिता कौ नांव।
रिड़ीज गढ रौ पाटवी, परण्यौ मालां रै गांव।।
जरणी जायो अेकलौ, चढ्यौ गउवां घेरण लार।
कांकड़ कोस पैंतीस पर, जा पूग्यौ भड़ वार।।
मगर पचीसां हुवौ मोटियार।
सासरै जाय, चढ़या गउवां कै लार।।
छोटकी दाईं बजाई थैं वार।
हुवौ कुळ देव बडौ जूंझार।।
हुवौ न को होसी इसौ कोई जाट।
बुवौ न को बैसी लखावट वाट।।
कंचन सेती देवळी, सब जुग लेसी नांव।
रिड़वी गढ रौ पाटवी, कियौ बिगै नै धांम।।
                                                                              

-अत्यन्त हर्ष और उल्लास के साथ सूचित किया जाता है कि लोक देवता वीर बिग्गाजी का दो दिवसिय मेला 13अक्टूम्बर से जन्म स्थान व शीश देवली धाम रीड़ी एवं धड़ देवली धाम श्री बिग्गा में आयोजित होगा . इस दौरान विशाल रात्री जागरण दिनांक 13 अक्टुम्बर की शाम को तथा भव्य मेला 14 अक्टुम्बर को आयोजित होगा , जिसमें आप सभी सादर आमन्त्रित है I
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निवेदक :- श्री वीर बिग्गाजी मानव सेवा संस्थान (रजि.)
वीर बिग्गाजी का मन्दिर ग्राम-श्री बिग्गा ,तह.-श्री डूँगरगढ (बीकानेर)

पुलिस की ओर से हर साल चढ़ायी जाती है अलोद के वीर तेजाजी मेले में ध्वजा


बूंदी जिले की दबलाना थाना पुलिस हर साल अलोद के पशु मेले में तेजाजी को ध्वजा चढ़ाती है।पिछले करीब चालीस साल से यह परम्परा नियमित जारी है।
अलोद में पशु मेले की शुरुआत के मौके पर दबलाना थाना पुलिस की ओर से तेजाजी को गाजे-बाजे के साथ ध्वजा चढ़ाई जाती हैं । 
सुबह वीर तेजाजी अलोद मेले के लिए ध्वजा को पूजा अर्चना होने के बाद डीजे के साथ रवाना किया जाता हैं ।
मंदिर निर्माण रोका तो छाती पर आ बैठे
ग्रामीणों के अनुसार वर्ष 1976 में अलोद में तेजाजी का मंदिर बनाया जा रहा था। इसका गांव के कुछ लोगों ने विरोध किया।
उन लोगों की ओर से दबलाना थाने में रिपोर्ट आई। जिस पर पुलिस ने मंदिर का काम बंद करा दिया।
दूसरे दिन रात को जब थानेदार सो रहे थे, उसी समय तेजाजी नाग के रूप में आकर थानेदार के ऊपर बैठ गए। दूसरे दिन थाने के चारों तरफ नाग ही नाग हो गए। ऐसा दो दिनों तक चला। इसके बाद थानेदार ने खुद अलोद जाकर तेजाजी का मंदिर बनवाया और सर्वप्रथम पुलिस थाने की तरफ से मंदिर में ध्वजा चढाई।
वे मंदिर से यह प्रण लेकर आए कि अब हर वर्ष सर्वप्रथम थाने की तरफ से ध्वजा चढ़ेगी। उस दिन के बाद से हर वर्ष सर्वप्रथम थाने की ध्वजा तेजाजी को चढाई जाती हैं।


तोड़ी परम्परा तो नागों ने थाने को घेरा
ग्रामीणों का कहना है कि वर्ष 1996-97 में थानेदार ने ध्वजा नहीं चढ़ाई थी। उस समय भी थाने के चारों तरफ नाग ही नाग हो गए थे। दूसरे दिन थानेदार ध्वजा लेकर खुद पैदल गए और तेजाजी को धोक लगाकर माफी मांगी। मान्यता है कि हर वर्ष ध्वजा चढाने से तेजाजी थाने व पुलिसकर्मियों की रक्षा करते हैं।

लोक देवता गो रक्षक वीर बिग्गा जी का मेला 13 अक्टूम्बर से


बीकानेर - लोक देवता वीर बिग्गा जी का दो दिवसीय मेला शीश देवली धाम रीड़ी व धड़ देवली धाम श्री बिग्गा में 13 व 14 अक्टूम्बर को आयोजित होगा l शीश देवली धाम रीड़ी में वीर बिग्गा जी नव युवक मंडल व धड़ देवली धाम श्री बिग्गा में वीर बिग्गा जी मानव सेवा संस्थान के कार्यकर्ता मेले की तैयारियां में लगे हुए हैं l श्रद्धालुओं का आवागमन शुरु हो चुका हैं l मेले में आने वाले जातरूओं के लिए निःशुल्क चिकित्सा सेवा का केम्प लगाया गया हैं l

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

जग झुरे विनती करे एकर पाछो आवे नि जग में बाबा नाथूराम ,,,

20 अक्टूबर 1920 को नागौर जिले के कुचेरा में पैदा हुए नाथूराम मिर्धा ने नागौर को अपनी कर्मभूमि मानकर राजनीति में कदम रखा और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। नाथूराम मिर्धा कई सालों सांसद रहे। यहां तक कि 1977 में पूरे उतर भारत में कांग्रेस को जो दो सीटें मिली थी उनमें से एक नागौर से नाथूराम मिर्धा की सीट थी।




जग झुरे विनती करे एकर पाछो आवे नि जग में बाबा नाथूराम ,,,
पूर्व केंद्रीय मंत्री किसान नेता  मारवाड़ में बाबा के नाम से विख्यात स्व.चौधरी नाथूराम जी मिर्धा की 20वीं पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन  
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Nathuram Mirdha (1921–1996) was a parliamentarian, freedom fighter, social reformer and popular farmer leader of Marwar region in Rajasthan, India. He was born in Kuchera, Nagaur district, Rajasthan on 20 October 1921. His father’s name was Thana Ram Mirdha.



Education:-Nathuram Mirdha passed his matriculation from Darbar High School Jodhpur with first division. He did MA (Economics) and completed LLB degree in 1944 from Lucknow University.


Rise as farmer leader

Nathuram Mirdha organized a massive farmer gathering at Jodhpur under the Chairmanship of Sir Chhotu Ram. He joined the Institution of farmers "Kisan Sabha" founded by Baldev Ram Mirdha as Secretary in 1946. He was made the Revenue minister in the Jodhpur state. Nathuram Mirdha had intimate association with Justice Kan Singh Parihar (Parihar was a great advisor to Baldev Ram Ji Mirdha). Parihar was the backbone of the Marwar tenancy act 1949 and Marwar Land Revenue Act 1949. He strongly emphasized Natu Ram Mirdha to act quickly on land reforms in Marwar. The Marwar tenancy act 1949 and Marwar Land Revenue Act 1949 was drafted by Kan Singh Parihar, which gave ownership rights to the farmers of Marwar over the night without having to pay anything. Nathuram Mirdha played an instrumental role in enactment of the Marwar tenancy act 1949 and Marwar Land Revenue Act 1949 and it was one of the important objectives set forth by Baldev Ram Ji Mirdha.

Freedom fighter and political leader

Nathuram Mirdha simultaneously fought feudalism as well as the British during the Indian independence movement.
On 15 August 1947 India became free and a popular Ministry was installed in Jodhpur. Recognizing the importance of the Kisan Sabha, its general Secretary Nathuram Mirdha, nephew of Baldev Ram Mirdha, was included in the Ministry. He won his first assembly election in 1952 from Merta City constituency with a huge majority. He was a Member of the Rajasthan Legislative Assembly from 1952 to 1967 and 1984 to 1989 and held several important portfolios in the Government of Rajasthan. He is known for strengthening agriculture and cooperative sectors in Rajasthan. Commencing from 1972, he was returned to the Lok Sabha six times. He served in the Union Council of Ministers in 1979-80 and 1989-90. He served also as the Chairman of the National Agricultural Prices Commission.

Chairman of National Agricultural Prices Commission

As Chairman of National Agricultural Prices Commission, he implemented number of schemes in the interest of farmers.
He was Chairman of Maharaja Suraj Mal Institute, New Delhi for ten years. This institute progressed very fast during this period.


Differences with Indira Gandhi

Nathuram Mirdha developed differences with Indira Gandhi in 1975 during emergency period. He left the National Congress and joined Lok Dal Party under the leadership of Choudhary Charan Singh. Nathuram Mirdha, then of the Congress, won the 1971 and 1977 elections. He retained the seat for the Congress-Urs in 1980, and in 1984 kinsman Ram Niwas Mirdha of the Congress defeated him. In 1985 he was leader of Lok Dal in Rajasthan assembly. It was with his efforts and strategy that made Lok Dal party a national level organization. He was state president of Lok Dal Party in 1988. In 1989, contesting on the Janata Dal ticket, Nathuram defeated Ram Niwas.
By 1991 he had joined the Congress, for which party he won the seat in 1991 and 1996. Nathuram Mirdha joined Congress in 1991 after a period of fourteen years. He was also the Deputy Leader of the Congress-I Parliamentary Party till 1996. In 1996 he got elected to Lok Sabha with a huge majority. That his popularity was undiminished can be seen from the 1996 result: he defeated his BJP rival H Kumawat by almost 160,000 votes. However, he died soon after. In the by-election that followed Nathuram Mirdha's death, the BJP fielded his son Bhanu Prakash Mirdha, a newcomer to politics, and took the seat from the Congress (I).
He was Minister of State for Irrigation, Finance, Food and Civil Supplies and Chairman of many important Parliamentary Committees. He rendered service to the cause of the farmers, Scheduled Castes, Scheduled Tribes and other weaker sections of the society. A lawyer by profession, he also rendered service in the field of education by establishing many educational institutions and Hostels.

Family

He was married to Kesar devi in 1936 and they had two sons and two daughters. His younger son Bhanu Prakash Mirdha was elected to Lok Sabha in 1996.
Nathuram Mirdha died on 30 August 1996 in New Delhi at the age of seventy-five.

शनिवार, 20 अगस्त 2016

साक्षी मलिक और संधु को समर्पित



हुआ कुम्भ खेलों का आधा, हाथ अभी तक खाली थे।
औरों की ही जीत देख हम, पीट रहे क्यों ताली थे।
सवा अरब की भीड़ यहाँ पर, गर्दन नीचे डाले थी।
टूटी फूटी आशा अपनी, मानो भाग्य हवाले थी।
मक्खी तक जो मार न सकते, वे उपदेश सुनाते थे।
जूझ रहे थे उधर खिलाड़ी, लोग मज़ाक उड़ाते थे।
कोई कहता था भारत ने , नाम डुबाया खेलों में।
कोई कहता धन मत फूंको, ऐसे किसी झमेलों में।
कोई कहता मात्र घूमने, गए खिलाड़ी देखो तो।
कोई कहता भारत की है, पंचर गाड़ी देखो तो।
बस क्रिकेट के सिवा न जिनको , नाम पता होगा दूजा।
और वर्ष भर करते हैं जो, बस क्रिकेट की ही पूजा।
चार साल के बाद उन्हें फिर नाक कटी सी लगती है।
पदक तालिका देख देख कर, शान घटी सी लगती है।
आज देश की बालाओं ने , ताला जड़ा सवालों पर।
कस के थप्पड़ मार दिया है, उन लोगों के गालों पर।
बता दिया है जब तक बेटी ,इस भारत की जिंदा हैं।
यह मत कहना भारत वालो, हम खुद पर शर्मिंदा हैं।
शीश नहीं झुकने हम देंगी, हम भारत की बेटी हैं।
आन बान की खातिर तो हम, अंगारों पर लेटी हैं।
भूल गए यह कैसे रक्षा-बंधन आने वाला है।
बहिनों के मन में पावन, उत्साह जगाने वाला है।
भैया रहें उदास भला फिर, कैसे राखी भाती ये।
पदकों के सूखे में पावस, कैसे भला सुहाती ये।
दो दो पदकों की यह राखी, बाँधी, देश कलाई पर।
इतना तो अहसान सदा ही, करती बहिना भाई पर।
आज साक्षी जाट के भुजदंडों, ने सबको ललकारा है।
अगर हौसला दिल में है तो, पूरा विश्व हमारा है।
जाट संधू के तेवर हैं, जैसे लक्ष्मीबाई हो।
अपनी भाई की खातिर ज्यों , बहिन युद्ध में आई हो।
जिनको अबला कहा वही तो ,सबला बन छा जातीं हैं।
अपने मन में ठान लिया वह, पूरा कर दिखलाती हैं।
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बाड़मेर के खोखसर का खेताराम कल दौड़ेगा ओलम्पिक ट्रेक पर

 किसान का बेटा अभावों में हौसले के दम पर पहुंचा रियो तक, धोरों से नंगे पांव दौडऩे व सेना के अनुशासन से निखरी प्रतिभा


ओलम्पिक खेल शुरू होने के 120 वर्ष बाद पहली बार बाड़मेर ने ओलम्पिक में दस्तक दी है। ब्राजील के रियो डी जेनेरियो के ओलम्पिक ट्रेक पर बाड़मेर के खोखसर पूर्व निवासी सर्विसेज (सेना) का मैराथन धावक खेताराम दौड़ेगा।

मेराथन धावक खेताराम की संघर्ष की कहानी भी मिल्खासिंह से कम नहीं है। कभी खेतों में पसीना बहाने वाला खेताराम अब ओलम्पिक के ट्रेक पर दौड़ेगा। ढाणी के सरकारी स्कूल में पढ़ा, घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर पिता के साथ खेतों में पसीना बहाया, पाई-पाई जोड़कर अभ्यास की सामग्री जुटाई और धोरों में दौड़ कर अभ्यास किया। उपखंड मुख्यालय बायतु से 70 किलोमीटर दूर खोखसर पूर्व ग्राम पंचायत के सियागों का तला में है ओलम्पिक के लिए चयनित खेताराम की ढाणी (घर)। खोखसर पूर्व गांव से खेताराम की ढाणी तीन किलोमीटर दूर है।

बचपन से खेलों में रूचि
खेताराम की बचपन से ही खेलों में रुचि रही। वर्ष1998 में उसने जिला स्तरीय खेलकूद प्रतियोगिता में भाग लिया और अव्वल रहा। उस दौरान वह कक्षा 7 में पढ़ रहा था। इसके बाद वर्ष 2002 में उसने राष्ट्रीय स्तर पर 3000 मीटर दौड़ में प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 2004 में खेताराम सेना में भर्ती हो गया। यहीं से उसके खेल में निखार आना शुरू हुआ।
खेतों में दौड़ से शुरुआत
खेताराम के खेल जीवन की अधिकृत शुरुआत तो विद्यालयी खेलकूद प्रतियोगिताओं से हुई, लेकिन वास्तविक शुरुआत बचपन में खेतों में नंगे पांव दौडऩे के साथ ही हो गई थी। परन्तु यह कोई नहीं जानता था कि खेतों से शुरू हुई यह दौड़ एक दिन ओलिम्पिक तक पहुंच जाएगी। किसान राणाराम व जेठीदेवी की पांच संतानों में सबसे बड़े खेताराम ने एक बार दौडऩे के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यही वजह है कि धोरों में अभावों में पला-बढ़ा यह जांबाज फौजी दुनिया के सबसे बड़े खेल महोत्सव (ओलम्पिक) में भाग ले रहा है।
12 साल से सेना में
वर्ष 2004 में खेताराम सेना में भर्ती हो गया। यहीं से उसके खेल में निखार आना शुरू हुआ। इसके बाद उसने नियमित अभ्यास किया और इसी का नतीजा है कि कल वह मैराथन में दौड़ेगा।
ढाणियों में पढ़ा हमारा धावक
खेताराम के पिता की माली हालत ऐसी नहीं थी कि उसे शहर में पढऩे के लिए भेज सके। ऐसे में उसकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। दसवीं तक खेताराम खोखसर में ही पढ़े। इसके बाद 11वीं सवाऊ पदमसिंह स्थित सरकारी हाई स्कूल एवं 12वीं हीरा की ढाणी हाई स्कूल से पास की।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

संघर्ष से तपकर कुन्दन बने चौ. देवीलाल -दादा की कहानी पौते की जुबानी

संघर्ष से तपकर कुन्दन बने चौ. देवीलाल 

                                    लेखक- डॉ. अजयसिंह चौटाला



जिस प्रकार सोना आग में तपने के पश्चात कुन्दन का रूप धारण करता है, ठीक उसी तरह संघर्ष एवं मुसीबतों में तप कर इंसान Dr Ajay Singh Chautalaनायक से महानायक और महानायक से जननायक का रूप धारण करता है। भारतीय राजनीति में ऐसे विरले राजनेता हैं, जिन्होंने संघर्ष को अपने कंठ का हार बनाकर उसकी आग में तप कर भावी पीढिय़ों के वास्ते नये आयाम स्थापित किए हों। मेरे दादा जी चौ. देवीलाल भारतीय राजनीति में संघर्ष के एक ऐसे जननायक थे, जिन्होंने भारतीय राजनेताओं एवं जनता के सामने असं य अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर संघर्ष के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया है। आज उनकी जयंती पर मैं उनके संघर्ष की गाथा के कुछ अंश आप लोगों से सांझा कर रहा हूँ।
चौधरी देवीलाल की संघर्ष की गाथा 12 साल की उम्र से शुरू होकर उनकी अंतिम सांसों तक चलती रही। इस महान धरती पुत्र ने अपने जीन की संघर्षमय शुरूआत अपने ही घर से मुजारों को संगठित करके उनको उनका हकदिलवाने के लिए की। इसके लिए उन्होंने विनोबाभावे द्वारा संचालित भू-दान आंदोलन में केवल बढ़चढ़ कर भाग ही नहीं लिया, बल्कि अपचौधरी देवीलाल | Ch Devi Lalनी जमीन का एक बड़ा भू-भाग भी मुजारों को बांट दिया। सन् 1930 में जब महात्मा गांधी की आंधी आने प्रबल वेग के साथ अंग्रेजी शासन को उखाड़ फैंकने के लिए देश भर में चल रही थी, यह नीडर बालक देवीलाल, गांधी की आंधी से प्रभावित हुआ और देश की आजादी के लिए चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा। इसके लिए उनको कई बार जेल यात्राएं भी करनी पड़ी, लेकिन उन्होंने तब तक दम नहीं लिया, जब तक भारत गुलामी की बेडिय़ों से मुक्त नहीं हुआ। उसके पश्चात उन्होंने उत्तर भारत के किसानों के लिए अपनी जंग छेड़ दी। इतना ही नहीं वे सदैव किसानों के हितों की लड़ाई लड़ते रहे, क्योंकि  महात्मा गांधी ने भी कहा था कि ‘भारत गांवों में बसता है और हमारे गांव पिछड़े हुए हैं, गांव का विकास ही भारत का विकास है, के मंत्र को आत्मसात करते हुए चौ. देवीलाल ने अनेक ऐसी किसान परक नीतियों एवं योजनाओं को लागू किया, जिनके लिए उनको किसानों के मसीहा के रूप में जाना गया। उनकी पहचान भारतीय जनता में किसान जनसेवक के रूप में है। चौ. देवीलाल एक ऐसे सहस्त्राब्दी पुरुष हैं, जिनको भारतीय जनता स्वत: ही अपने किसान नेता के रूप में स्वीकार करती है। उनकी मान्यता थी कि -‘ खेतों में हल चलाते हुए किसानों का पसीना ही वह प्रतिबिब है, जिसमें प्रभु के सही-सही दर्शन कर सकते हैं। 
मैं पहले किसान हूँ, बाद में मुयमंत्री’ के मूलमंत्र को स्वीकारते हुए ताऊ देवीलाल ने ग्रामीण व किसानों के हित के लिए जनहितकारी योजनाएं लागू की। आठवीं पंचवर्षीय योजना के निर्धारण में ताऊ के आग्रह पर ही सरकारी बजट का आधा हिस्सा कृषि क्षेत्र पर लगाने का निर्णय लिया गया। उनके प्रयास फलस्वरूप ग्रामीण विकास कार्यों पर किए जाने वाले केन्द्रीय बजट को 20 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी कर दिया गया। इसके अतिरिक्त फसलों का पर्याप्त मूल्य दिलाने के लिए कृषि उपज की लागत के आधार पर उनके मूल्यों में वृद्धि कर किसानों को लाभ पहुंचाया। देश के इतिहास में पहली बार प्राकृतिक आपदा से हुए नुक्सान का मुआवजा देकर उन्होंने एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया। टै्रक्टरों का टोकन माफ किया। हरियाणा कृषि कर्जा राहत अधिनियम 1989 का एक्ट बनवाकर उन्होंने किसानों को कर्जो से मुक्ति दिलाने का प्रयास किया। सडक़ों तथा नहरों के किनारे खड़े पेड़ों में किसानों का आधा हिस्सा निर्धारित कर उनकी किसान परक सोच का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया ।
चौ. देवीलाल का दृढ़ विश्वास था कि - ‘हम तभी सुखी रह सकते हैं, जब किसान के चेहरे पर मुस्कान हो, यही मुस्कान राज्य व राष्ट्र की मुस्कान बनती है। किसानों के हित के लिए चौ. देवीलाल ने अनेकों बार सत्ता को छोडऩा पड़ा, लेकिन किसानों के हितों के साथ कभी भी अन्याय नहीं होने दिया।’ आज हरियाणा ही नहीं अपितु देश की जनता चौ. देवीलाल के संघर्ष का लोहा मानती है। भारतीय राजनीति में किसानों का मान बढ़ाने वाले, उनका हक दिलाने वाले यदि किसी नेता का नाम आज शीर्ष पर है तो वो हैं चौ. देवीलाल। कहना न होगा चौ. देवीलाल के जीवन का अंतिम क्षण भी किसानों के हित से जुड़ा रहा। जब उन्होंने अंतिम सांस पूरी करने सेपूर्व मेरे से यह पूछा कि ओलावृष्टि से त्रस्त किसानों के लिए सरकार क्या कर रही है? तो इस पर मैंने  आबियाना, ऋण वसूली, बिजली बिल आदि राहतों का विवरण दिया, मगर मेरे दादा जी चौ. देवीलाल इससे संतुष्ट नहीं हुए और कहा कि यह तो ठीक है मगर तुम लोग (उस समय हरियाणा सरकार) इस प्राकृतिक आपदा से प्रभावित किसानों को क्या दे रहे हो ? यानि रोम -रोम से किसानों के प्रति जुड़े ताऊ का अंतिम सरोकार भी किसान लोक कल्याणपरक था। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि किसानों के उत्थान की भावना उनके मन में कितनी कूट-कूट कर भरी हुई थी। उनकी इस सोच के पीछे शायद यही कारण था कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश का विकास तब तक स भव नहीं है, जब तक यहां किसान को उसकी मेहनत का पूरा मेहनताना उसे नहीं मिलता।
चौ. देवीलाल, भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस का सपना था कि भारत एक ऐसा देश बने, जिसमें गरीब, मजदूर, किसान सभी को सत्ता में भागीदारी का मौका मिले, लेकिन वर्तमान कांग्रेस सरकार ने गरीब मजदूर एवं किसान के मुंह का निवाला छींन लिया है। आज देश एवं प्रदेश आर्थिक दृष्टि से खोखला हो चुका है। सभी कांग्रेसी सत्ताधारी नेता भ्रष्टाचार के दानव को पाल-पोषकर अपनी जेबें भर रहे हैं। गरीब, मजदूर व किसान के खून पसीने की गाड्ढ़ी कमाई को बर्बाद किया जा रहा है। आज नौकरियों के नाम पर भेदभाव बरता जा रहा है। हमारी सरकार ने अपने राज में जब गरीब परिवारों के बच्चों को परिवार का घर-गुजर चलाने के लिए नौकरी दी तो इन दो मुंहे सांपों ने हमें झूठे मुकदमों में फंसाकर, एक षडय़ंत्र के तहत आप लोगों से दूर करने का काम किया। हमने कोई हत्या नहीं की है कि हम जेल की सलाखों के पीछे रहें। हाँ, इनेलो सरकार द्वारा बेरोजगारों को मेरिट के आधार पर रोजगार देने के आरोप में यदि मुझे जेल काटनी पड़ेगी तो मैं पूरी जिन्दगी भी जेल में रहने के लिए तैयार हूँ, क्योंकि मेरे लिए प्रदेश की जनता का हित सबसे पहले है। मेरा पूरा जीवन प्रदेश की जनता के लिए समर्पित है। हमारी सरकार ने उस बेरोजगार बेटे को सहारा दिया जो दो वक्त की रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा था। उस भूखी माँ की बेटी को नौकरी दी, जो दो वक्त की रोटी के लिए मौहताज थी। उस छोटे बच्चों के बाप को नौकरी दी, जो गरीबी की दलदल में फंसकर अपने बच्चों के भविष्य के बारे में नहीं सोच पा रहा था। गरीब परिवारों के उन भाई-बहनों को नौकरी दी, जो रोजगार के लिए दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे थे, ऐसे गरीब, किसान एवं मजदूर के बच्चों को मेरिट पर नौकरी देना कोई अपराध नहीं है। मेरी रगों में भी चौ. देवीलाल एवं चौ. ओमप्रकाश चौटाला का खून दौड़ता है, मैं तब तक चैन से नहीं बैठूंगा, जब तक कांग्रेसियों द्वारा लगाए गए बेबुनियादी आरोपों को न्यायलय के माध्यम से झूठा न साबित कर दूँ। हम न्यायपालिका का पूरा स मान करते हैं और हमें पूरा भरोसा है कि निश्चित तौर पर अंतिम जीत सच्चाई की होगी।

जब काल-कोठरी में भी नहीं घबराएं चौ. देवीलाल

पात काल के समय चौ. देवीलाल को जब गिर तार कर महेन्द्रगढ़ के किले में बंद कर दिया गया था। एक छोटी सी कालकोठरी में जहां दो व्यक्ति भी नहीं सो सकते, मेरे दादा जी चौधरी देवीलाल, मनीराम बागड़ी, सहित तीन व्यक्तियों को कोठरी में बंदी बनाया गया। ऐसे में संतरी शाम को 6 बजे कोठरी में ताला लगाता था और प्रात: 9 बजे ताला खोलता था। एक साथ कोठरी में दो व्यक्ति को लेटना पड़ता था तथा तीसरा व्यक्ति कपड़े से हवा झोलता था, क्योंकि कोठरी में जहां एक ओर दो ही व्यक्तियों के लेटने की व्यवस्था थी, वहीं दूसरी ओर मोटे-मोटे मच्छरों की भरमार थी। बिजली-पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी। कोठरी में केवल एक ही छेद था, जिसमें से रोशनी आती थी। इतना ही नहीं वहां पर शौचालय की भी सुविधा नहीं थी। मेरे दादा जी चौ. देवीलाल ऐसे हालात में कभी भी कठिन से कठिन परिस्थितियों में मुर्झाए नहीं और उन्होंने विपरित से विपरित परिस्थितियों में संघर्ष करने की प्रेरणा दी। आज उसी प्रेरणा को आत्मसात कर हम संघर्ष की राह पर हैं। हमें विश्वास है कि एक दिन हमारा संघर्ष रंग लाएगा और हरियाणा की जनता को न्याय मिलेगा।

आज भी जनमानस में रची-बसी हैं ताऊ देवीलाल की स्मृतियां

  आज भी जनमानस में रची-बसी हैं ताऊ देवीलाल की स्मृतियां                                                          लेखक- डा. अजय सिंह चौटाला
दीन-दुखियों, दलितों, किसानों व कमेरों के दुख-दर्द को बांटकर उनकी उन्नति व उत्थान के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले चौ. देवीलाल को नमन करते हुए कहना चाहता हूं कि देश सेवा को अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले बलिदानी, संघर्षशील, जुझारू व त्याग की मूर्ति चौधरी देवीलाल जैसे महापुरुष सदियों बाद विरले ही पैदा होते हैं। अनेक नामों से विभूषित चौ. देवीलाल इस देश के ऐसे महान सपूत हुए हैं, जिनको भारतीय समाज ने जननायक, महानायक, लोकनायक, किसानों व कमेरों का मसीहा, धरतीपुत्र, हरियाणा केसरी, हरियाणा का निर्माता, किंगमेकर, भीष्मपितामह, युगपुरुष, लौहपुरुष व जगतताऊ आदि अलंकारों से विभूषित किया। 

आज उनकी याद में मेरे मन के भाव उद्वेलित हो रहे हैं, मैं उनको रोक नहीं पा रहा हूं, परिस्थिति जो भी हो, उन्होंने हमें यही सिखाया कि व्यक्ति को अपने जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए और अपनी बात सदा जनता के बीच रखनी चाहिए क्योंकि जनता से बड़ा न्याय का दरबार कोई दूसरा नहीं हो सकता। उनकी इसी सीख को आत्मसात करते हुए, मैं उनसे जुड़ी यादें आप लोगों से साझा कर रहा हूं। बड़ी-बड़ी सुंदर आंखों वाले, लंबे-चौड़े कद-काठी के कद्दावर व्यक्तित्व के धनी, दमदार आवाज के मसीहा, पगड़ी में किसी नायक से कम न दिखने वाले रौबिली चाल-ढाल के मालिक मेरे दादा जी चौ. देवीलाल  जैसे नायक विरले ही मिलते हैं...? वे तन से जितने सुन्दर थे, मन से उतने ही स्वच्छ, उज्ज्वल व पारदर्शी भी थे। 

वर्तमान दौर में राजनीतिज्ञों का आभूषण बन चुके लोभ-लालच, नफरत, धोखा, फरेब जैसे दुर्गुणों से लाखों कोस दूर थे। गरीब शोषित, मजदूर, किसान, खेतिहर, दलित, पिछड़ों व कामगारों के सदैव हितैषी रहे। चौ. देवीलाल में एक सच्चे नेता के गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे। नेता की परिभाषा को जानना है, तो चौ. देवीलाल से महत्वपूर्ण मिसाल कोई और नहीं हो सकती। सर छोटूराम की ‘बेचारा किसान’ पुस्तक को सदैव दिल से लगाए रखने वाले, देश की राजनीतिक गाड़ी को जहाज-सी गति दौड़ाने वाले को निजी जिन्दगी में साइकिल के अतिरिक्त कुछ और चलाना भी नहीं आया। 

घोड़े की सवारी, कुश्ती लडऩा, साइकिल चलाना, लोगों की सेवा करना उनके बीच में जाकर, उनके दुख-दर्द को सांझा करना, उनके ऐसे शौक थे, जिसके लिए उन्होंने अपने घर की जमीन तक को दांव पर लगा दिया...? हरियाणवी लोकजीवन में चौ. देवीलाल से जुड़े हुए उनकी यादों के हजारों किस्से देहात में लोगों की जुबान पर मोतियों की तरह बिखरे हुए पड़े हैं, जिनको मैं आप लोगों से साझा कर रहा हूं।
 
देवीलाल ने जब मन्दिर में हरिजन को बनाया पुजारी ...!

मेरे दादा जी सभी कौमों के लोगों को अपने साथ जोड़कर चलते थे, धर्मनिरपेक्षता का उनसे बड़ा उदाहरण मुझे आज तक देखने को नहीं मिला। आप लोगों को जानकर बड़ी हैरानी होगी कि सन् 1960 के दशक में उन्होंने चौटाला गांव के मन्दिर में एक हरिजन भाई को पुजारी का काम सौंपकर ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया, जो अपने आप में अनूठा है। चौटाला गांव के इस मन्दिर में धर्मनिरपेक्षता का इससे बड़ा उदाहरण देखने को नहीं मिलता, जो चौ. देवीलाल ने हरिजनों को मन्दिर की बागडोर सौंपकर स्थापित किया। 

इस तथ्य का खुलासा पिछले दिनों उस समय हुआ, जब गांव में मन्दिर के पुजारी को लेकर सवर्णों एवं हरिजनों में परस्पर ठन गई। गांव वालों ने पंचायत बुलाई, पंचायत में बुजुर्गों ने बताया कि चौ. देवीलाल ने पुजारी के रूप एक हरिजन भाई को रखकर दूरदॢशता तथा धर्मनिरपेक्षता का 60 के दशक में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया था, इतना ही नहीं एक गांव की जमीन पर किसी ठोले के लोगों ने कब्जा कर लिया, गांव के लोग जब चौ. देवीलाल के पहुंचे तो चौ. देवीलाल ने अपनी दूरदॢशता का परिचय देकर उस कब्जे का छुड़वाया ही नहीं, अपितु ग्रांट देकर उस स्थान पर एक मन्दिर बनवा दिया। इस तरह के अनेक उदाहरण उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा थे। ऐसे थे चौ. देवीलाल...!

...जब अवतार सिंह कंग की आंखों में आंसू आ गए
यह बात उस समय की है, जब भारत में एमरजैंसी लगी थी। उसी दौरान चौ. देवीलाल कुरुक्षेत्र में अपना अभियान चला रहे थे। उन्होंने ढोल बजाकर लोगों को एकत्रित करने का काम किया, किन्तु पुलिस तथा प्रशासन ने उनसे मिलने वाले लोगों को गिरफ्तार करने का काम किया। इतना ही नहीं उनको खाने-पीने की वस्तु देने वालों के लिए भी पुलिस ने पाबंदी लगा दी। ऐसे में कुरुक्षेत्र के अवतार सिंह कंग ने उन्हें छठी पातशाही गुरुद्वारे से बिस्तर, रोटी-सब्जी व भोजन दिया। जब चौधरी देवी लाल ने उस युवक का नाम पूछा तो उन्होंने अपना नाम अवतार सिंह कंग बताया। 

चौ. देवीलाल अवतार सिंह कंग नामक युवक को भूले नहीं, जब सन् 1977 में चुनाव जीते और हरियाणा के मुख्यमंत्री बने तो कुरुक्षेत्र में आकर उन्होंने उसी अवतार सिंह कंग के घर जाने का फैसला किया। ज्ञानी मेहर चन्द के साथ वो अवतार सिंह के घर गए। चौ. देवीलाल को अचानक अपने घर देख अवतार सिंह भाव-विभोर हो उठा, कि एक छोटे से कार्यकर्त्ता जिसने एमरजैंसी के समय चौ. देवीलाल को खाना एवं बिस्तर दिया था। उस बात को भूले नहीं और उसी का अहसान चुकाने के लिए उनके घर तक आ पहुंचे थे। 

चौ. देवीलाल को अपने घर देख अवतार सिंह कंग की आंखों में आंसू आ गए। चौ. देवीलाल ने बड़ा हृदय दिखाते हुए, अवतार सिंह के घर पर ही लोगों के सामने उनको सॢवस सिलैक्टशन बोर्ड का सदस्य बनाने की घोषणा कर दी। इस घोषणा के साथ ही अवतार सिंह जिन्दाबाद के नारे लगने लगे और उनकी आंखों में पानी आ गया, ऐसे थे मेरे दादा चौ. देवीलाल।
 
अपनी गाड़ी में बिठाकर छोड़ा जब गांव में ...!
एक बार की बात है, मेरे दादा जी अग्रोहा से गाड़ी में आ रहे थे। उन्होंने देखा कि अग्रोहा मोड़ पर एक युवक जिसका नाम मांगे राम भाकर था, बस की इंतजार में खड़ा हुआ था, तभी उसके पास दादा जी की गाड़ी आकर रुकी और उन्होंने कहा-छोरे कड़ै जावैगा ......! वह युवक चौ. देवीलाल को अपने सामने देखकर सक-पका गया और उसने कहा मैं तो अपने गांव कुलहेड़ी जाऊंगा। मेरे दादा जी ने उससे कहा - आज्या गाड़ी मैं बैठ ज्या। मैंने थारे गाम में गए होए बहौत दिन हो लिए ....। हालांकि उसी दिन दादा जी की तबीयत ठीक नहीं थी, बावजूद उसके मांगे राम को उनके गांव में छोड़कर गांव के किसानों तथा गरीबों का हाल-चाल पूछकर और मांगे राम को कुछ पुस्तकें भेंट कर चौ. देवीलाल वापस अपने गंतव्य की ओर चल दिए...।
 
मैं ही हूं तेरा देवीलाल ....! 
मेरे दादा जी सन् 1989 में जब हरियाणा के मुख्यमंत्री थे, तो वे गांव सच्चाखेड़ा होकर गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि रास्ते में दोपहरी के समय एक बुजुर्ग सड़क के किनारे पेड़ की छांव में आराम कर हुक्का गुडग़ुड़ा रहा है, जिसकी आंखों की रोशनी भी बहुत कम थी। 

चौ. देवीलाल ने उस बुजुर्ग को देखा और काफिला वहीं पर रोक दिया और उससे मिलने के लिए पहुंच गए, और कहा -चौ. साहब- अच्छे दिन कट रहे हैं ...., पिलसण टाइम पै तो मिलरी है ना...! दादा जी की आवाज सुनकर बुजुर्ग ने कहा-पिलसण टाइम पै मिल रही है। मेरा यो जो आज मान-सम्मान है म्हारे देवीलाल के कारण है। भगवान करै मेरी भी जिन्दगी देवीलाल को लग जाए, जिसनै सारे बुढैयां की कद्र बढ़ा दी।

बुजुर्ग की इतनी बात सुणते ही मेरे दादा जी कह उठे - मैं ही हूं तेरा देवीलाल...., चिन्ता नै कर इबै तन्नै ओर बहुत साल जीणा है....। 
आज भारतीय राजनीति को कल्याण का स्वरूप प्रदान करने वाले भारतीय लोगों के दिलों के रत्न चौ. देवीलाल के दिखाए गए रास्ते पर चलकर जनता-जनार्दन की सेवा को समॢपत हैं। लोकतंत्र में जनता से बड़ा न्यायालय नहीं हो सकता। उनकी इसी सीख को आत्मसात करते हुए उनकी हर याद को नमन् करते हुए इतना ही कहना चाहता हूं । 
बड़े शौक से सुन रहा था तुम्हें जमाना...।
तुम ही सो गए, दास्तां कहते-कहते...।


ऐतिहासिक जैसकाणा जोहड़


ऐतिहासिक जैसकाणा जोहड़ का निर्माण जाट सरदार जयसंग जी सारण ने करवाया था। जयसंग सारण पुलाजी सारण के भाई थे ।
पुलाजी सारण ने पुलासर बसाया और जयसंग जी सारण ने जयसंगसर गाँव बसाया।
सरदारशहर के आसपास का इलाका सारण जाटो ने आबाद किया। यहाँ सारण जाटो के 360 गाँव है।
सारण जाटो के मुख्य गाँव - भाङग (राजधानी) बुचावास फोगा खेजङा पुलासर आदि।
सारण जाटो का सबसे पहला गाँव सहारनपुर(उतरप्रदेश) और सबसे अंतिम गाँव सारसर(सरदारशहर , राजस्थान) बसाया गया।
वर्तमान जोहङ का पुनःनिर्माण कलस्टर योजना के अन्तर्गत हो रहा है ।
साभार :- अशोक जाखङ डालमाण की फेसबुक वाल से

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

वीर तेजाजी की प्रिय घोड़ी- लीलण


बिरखा रुत लागे सोवणी, कुरलावे मीठा मोर।
तेजागान रा जमघट लागे, गांव गांव ठोर ठोर।।
हद सोवणो खरनाल्यो, मुरधर रो मोती कहीजे।
सुर्रो मेरवाड़ा माणक ह, तेजल रो सत पूजीजै।।
जीवदया आपणो धरम है, गहणो आपणो धीर।
तेजल मानवता रो दिवलो है, केवे भक्त बलवीर ।।


गौभक्त महान यौद्धा श्री वीर तेजाजी के जन्म, जीवन संघर्ष, उनके अनमोल वचन, सद्कर्म, बलिदान दिवस जैसी तमाम जानकारियां हमारे ह्रदय में एक सुनहरी यादों व प्रेरक के रूप संरक्षित है। मगर जितनी जानकारी हमें वीर तेजाजी महाराज के संबंध में है, उतनी वीर तेजल की प्रिय घोड़ी व उनकी सबसे प्यारी सखी "देवात्मा लीलण" के बारे में नहीं है।
संत कान्हाराम जीे सुरसुरा तथा बलवीर जी मकराना की लेखनी के माध्यम से मैं इस देवात्मा लीलण की सामान्य जानकारी आपके साथ साझा कर रहा हूं.....
1.कान्हाराम जी की कलम से-
उस समय में 'लखी' नामक बंजारा अपना माल खरनाल परगने से होते है 'सिंध प्रदेश' ले जाया करता था। खरनाल परगने के भू-पति 'ताहड़ जी धौलिया' (वीर तेजाजी के पिताश्री) के यहां अकसर वह रूका करता था। लाखा के पास एक शुभलक्षणी सफेद रंग की दिव्य घौड़ी थी। जिसके गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी। साक्षात् महादेव की माया ही समझो कि जब एक बार वह सिंधप्रदेश जा रहा था तब खरनाल पलसे में एक खेजड़ी के वृक्ष के नीचे " विसं 1131आखातीज दोपहर सवा बारह बजे " महान यौद्धा वीर तेजाजी महाराज की इस प्रिय सखी का जन्म हुआ। दुख की बात कि लीलण को जन्म देते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गयी। लाखा ने अपनी बेबसी जताकर वह घौड़ी की बछिया ताहड़ जी को सौंप कर कहा कि गणपती अब आप ही इसे पाले पौसे। महादेव ने चाहा तो बड़ी होकर राजकुमार तेजल के बड़ी काम आयेगी। मैं दर दर भटकने वाला व्यापारी इसे नहीं पाल पाउंगा। ताहड़ जी ने उस प्यारी छोटी सी लीलण को अपने पास रखा, उसे गौमाता का दूध पिलाकर बड़ा तिया। गौमाता के दूध का प्रताप था कि इस लीलण में गाय की चेतना, समझदारी, वफादारी, नागौरी नस्ल सी बलिष्ठता, व देवत्व की बढोतरी होती गई।
2. बलवीर जी की कलम से-
तेजल राजकुमार सब भाईयों में छोटे व सबके चहेते थे। इसलिए वे लीलण के साथ पूरा पूरा दिन खेलते। उसे सखा सा प्यार व मां सा दूलार देते। अपनी भौजाई व माता के आभूषणों से कई बार खेल खेल में लद देते। पूरा गणराज्य इन दोनो का प्रेम देखकर अभीभूत हो उठता था। आभूषणों से सुसज्जीत वह प्यारी बछिया जब तेजस्वी राजकुमार को सवारी करवाती तो बरबस प्रजा के मुख से निकल पड़ता की "तेजल सखी सिणगारी" .. इसलिए लीलण का अन्य नाम "सिणगारी" भी कहा जाता है। वक्त गति मान है। बिना रूके चलता है। वक्त के साथ साथ दोनो सखा बड़े होते गये। भूपती पुत्र होने के नाते ''तेजल राजकुमार" के लिए शिक्षा व शस्त्र कला में पारंगत होना आवश्यक था। अत: राजकुमार को ननिहाल "त्योद" (किशनगढ) भिजवा दिया गया। वहां भी वे अपनी प्यारी सखी लीलण को साथ लेकर गये। एक परछाई की भांती लीलण जीवन पर्यन्त अपने स्वामी के संग रही। तेजल राजकुमार जंगल में गाये चराने जाते तो सभी गायों की अगुवाई करती। उनके साथ संवाद करती, क्रिड़ा करती। तेजाजी के साथ बैठकर गुरू "मंगलनाथ जी" के उपदेशों को ह्रदय में उतारती। तेजल राजकुमार के मामाश्री के संरक्षण में तेजल वीर को घुड़सवारी सिखाई गई। लीलण को युद्धक्षेत्र की विभिन्न कलाओं में पारंगत किया गया। इस प्रकार ननिहाल में दोनों सखाओं ने साथ साथ शिक्षा दिक्षा ग्रहण की।
तत्पश्चात "भूपती ताहड़देव जी' की हत्या, तेजाजी का ननिहाल से वापस आना। गणराज्य का भार संभालना। पहली बरसात में माता द्वारा बीजारी करने का कहना, भाभी के साथ गुस्सा होना, बहन राजल को पिहर से लाना व तमाम प्रतिरोधों के बावजूद अपनी अर्द्धांगीनी पेमल को लेने ससुराल शहर पनेर जाने जैसी घटनाएं होती है। शहर पनेर जाते वक्त इंद्रदेव के प्रकोप से रास्ते रोकते नदी नालों से स्वामिभक्त लीलण ने ही वीर तेजल को तरा था। पनेर के रायमल मूहता के बगीचे को लीलण द्वारा तहस नहस करने के हास्य वृतांत आज भी बड़े बुजुर्ग बड़े चाव से सुनाते है, तेजा गायक मीठी आवाज में इस घटना को लयबद्ध करते है। तत्पश्चात 'लाछा गूजरी' के गौधन रक्षार्थ युद्ध क्षेत्र में वीर तेजाजी के साथ रणकौशल दिखा शत्रुओं को नाश करना जैसे अनेको वृतांत मारवाड़-मेरवाड़ा के कण कण में विसरे पड़े है। वचनबद्ध तेजाजी जब नागदेवता की बांबी पर जाते है तब ससम्मान अपना अगला पैर उपर उठाकर नागदेवता को अपने उपर असवार होने का निमंत्रण देने जैसे प्रसंग अन्यत्र कही नही मिलते। नागदेवता द्वारा तेजाजी को डसने के बाद जब "तेजल-लीलण संवाद" होता है। वह इस अनमोल जीवन चरित्र का सबसे ह्रदय विदारक पल है। बहुत ही मार्मिक कि अगर बंद आंखो से उस पल का काल्पनिक चित्रण करे तो निश्चित ही आंखो से अश्रूधारा फूट पड़े। लीलण को तेजल वीर ने अंतिम कार्य अपनी विरगती का समाचार गांव खरनाल पहुंचाने का सौंपा।
माता पेमल लीलण से बोली-
कि तू बहुत सौभाग्यशाली है जो इस देवपुरूष के साथ जन्म से रही। अभागी तो में हू जो घड़ी दो घड़ी का ही साथ मिला।
"बूढा बडां ने कहिजै पांवाधौक म्हारी लीलण ऐ,
सासुजी ने किजै पगां लागणां,
नणदल राजल न मिलणो कहिजै लीलण म्हारी ऐ,
धीरज धारण की कहीजै अरजड़ी"
खरनाल जाते वक्त सखी सिणगारी ने परबतसर तालाब की पाल पर जल ग्रहण करके कुछ पल आराम किया था। भादवा सुदी 11 वि स 1160 को लीलण खरनाल राज्य के माणक चौक में आके जड़वत सी खड़ी हो गई। उनके नयनों से निरंतर अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। परिवार जनों ने उस बेबस सखी के दुख को समझ लिया। माता रामकुंवरी के चरणों में शीश नवाकर, बहन राजल की गोदी में सर रखकर अपने अश्रुमोती डालने के पश्चात लीलण खरनाल के "धुवा तालाब" की पाल पर आकर बैठ गई। और अपने स्वामी, सखा और अपने प्राणों से प्यारे तेजल को याद करते अपना देह त्याग दिया।
जिस स्थान पर लीलण ने प्राण त्यागे वहां आज छोटा मगर भव्य मंदिर बना हुआ है। जिसका निर्माण आज से 5-6 वर्ष पूर्व तेजाजी के वंशज "हरिराम जी पुत्र पदमाराम जी धौलिया" ने करवाया था।

"मैं इस वीरत्व स्वामीभक्ती की प्रतीमूर्ती के बारे में जितना लिख पाया हूं वह शायद बेहद ही कम है। जितना वैभवशाली जीवन चरित्र वीर तेजाजी महाराज का था उतना ही उनकी सखी "लीलण/सिणगारी" का।शत शत नमन है स्वामीभक्ती की मिशाल देवात्मा लीलण को"- तेजाभक्त बलवीर
जय वीर तेजा जी
जय वीर बिग्गा जी

बुधवार, 10 अगस्त 2016

श्री बिग्गाजी महाराज की आरती



जय बिगमल देवा-देवा-जाखड़ कुल के सूरज करूं मैं नित सेवा ।
जाखड़ वंश उजागर, संतन हित कारी (प्रभु संतन)
दुष्ट विदारण दु:ख जन तारण, विप्रन सुखकारी ॥ 1 ॥


सत धर्म उजागर सब गुण सागर, राव मेहन्द पिता दानी ।
सती धर्म निभावण सब गुण पावन, माता सुल्तानी ॥ 2 ॥


सुन्दर पाग शीश सोहे, भाल तिलक रूड़ो देवा-देवा ।
भाल विशाल तेज अति भारी, मुख पाना बिड़ो ॥ 3 ॥


कानन कुन्डल झिल मिल ज्योति, नेण नेह भर्यो ।
गोधन कारन दुष्ट विदारन, जद रण कोप करयो ॥ 4 ॥


अंग अंगरखी उज्जवल धोती, मोतीन माल गले ।
कटि तलवार हाथ ले सेलो, अरि दल दलन चले ॥ 5 ॥


रतन जडित काठी, सजी घोड़ी, आभा बीज जिसी ।
हो असवार जगत के कारनै, निस दिन कमर कसी ॥ 6 ॥


जब-जब भीड़ पड़ी दुनिया में , तब-तब सहाय करी ।
अनन्त बार साचो दे परचो, बहु विध पीड़ हरी ॥ 7 ॥


सम्वत दोय सहस के माही, तीस चार गिणियो ।
मास आसोज तेरस उजली, मन्दिर रीड़ी बणियो ॥ 8 ॥


दूजी धाम बिग्गा में सोहे, धड़ देवल साची ।
मास आसोज सुदी तेरस को, मेला रंग राची ॥ 9 ॥


या आरती बिगमल देवा की, जो जन नित गावे ।
सुख सम्पति मोहन सब पावे, संकट हट जावै ॥ 10 ॥

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

"तेजाजी महाराज की वन्दना"

"तेजाजी महाराज की वन्दना"
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तेजाजी महाराज को बार-बार वन्दना,
बार-बार वन्दना हजार बार वन्दना ।
तेजाजी महाराज----------------।

रामकंवरी के लाल को बार-बार वन्दना,
पेमल के भरतार को बार-बार वन्दना,
लिलण के असवार को बार-बार वन्दना
बार-बार वन्दना हजार बार वन्दना
तेजाजी महाराज------------------।

तेजाजी महाराज की लीला है न्यारी,
कलयुग मे ध्यावे थाने सब नर-नारी
भक्त प्रतिपाल को बार बार वन्दना
बार-बार वन्दना हजार बार वन्दना.
तेजाजी महाराज ------------------

श्वेत वस्त्र सोवे दाता लिलण की असवारी,

दुःखीयां रा दुःखडा मेटे,दाता अवतारी,
शिवजी के अवतार को बार-बार वन्दना,
बार-बार वन्दना हजार बार वन्दना.
तेजाजी महाराज-------------------

खडनाल्यो प्यारो थांरो,गांव कहलावे,
तेजाजी महाराज थांणो नाम कहावे,
राजल के भीर को बार-बार वन्दना,
बार-बार वन्दना हजार बार वन्दना
तेजाजी महाराज ------------------

तुम ही मेरे ब्रह्मा हो,तुम ही मेरे विष्णु,
तुम शिवशंकर,ओ मेरे दाता,
आप के चरणो में बार-बार वन्दना,
बार-बार वन्दना हजार बार वन्दना,
तेजाजी महाराज-----------------।

"तेजाजी महाराज की-जय "

भक्त शिरोमणि करमा बाई की कहानी

राजस्थान के कई स्थानों पर एक भजन बहुत मशहूर है-
 थाळी भरके ल्याई रे खीचड़ो, ऊपर घी की बाटकी।
 जीमो म्हारा श्याम धणी, जीमावै बेटी जाट की।।
इस भजन में करमा का जिक्र किया गया है जिसके हाथ से बना खीचड़ा खाने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण भी दौड़े चले आए थे। 

भक्त शिरोमणि करमा बाई 
 जब-जब भगवान कृष्ण का उल्लेख आता है, करमा का नाम भी आ ही जाता है।
वे भगवान की महान भक्त थीं और कृष्ण ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए थे। 

राजस्थान के नागौर जिले की मकराना तहसील में एक गांव है- कालवा। इस गांव में जीवनराम डूडी के घर 1615 में एक बेटी का जन्म हुआ। भगवान की बहुत मन्नतें मांगने के बाद इसका जन्म हुआ था। नाम रखा- करमा। करमा के चेहरे पर एक अनोखी आभा थी। बचपन से ही उसमें भक्तिभाव के संस्कार थे।
जीवनराम स्वयं भी धार्मिक पुरुष थे और वे अपनी बेटी से बहुत स्नेह रखते थे। इसी माहौल में करमा 13 साल की हो गई। एक बार जीवनराम को कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए पुष्कर जाना था। उनकी पत्नी भी उनके साथ जा रही थी। वे करमा को भी साथ ले जाना चाहते थे लेकिन एक समस्या आ गई। उनकी अनुपस्थिति में भगवान को भोग कौन लगाता? इसलिए उन्होंने करमा को यह जिम्मेदारी सौंपी और बोले- बेटी, हम दोनों पुष्कर स्नान के लिए जा रहे हैं। तुम सुबह भगवान को भोग लगाना और उसके बाद ही भोजन करना।

अगले दिन करमा ने क्या किया
करमा ने यह जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली। इधर मां-पिता तीर्थ यात्रा के लिए रवाना हुए, उधर घर पर करमा ने सुबह स्नान आदि कर बाजरे का खीचड़ा बनाया। उसमें खूब घी डाला और पूजा के लिए भगवान की मूर्ति के पास आ गई। थाली सामने रखी और हाथ जोड़कर बोली, हे प्रभु, भूख लगे तब भोग लगा लेना, तब तक मैं घर के और काम कर लेती हूं।
इसके बाद वह काम में जुट गई। बीच-बीच में वह थाली देखने आती लेकिन भगवान ने खीचड़ा नहीं खाया। थाली वैसी ही रखी हुई थी जैसी करमा कुछ देर पहले छोड़कर गई थी।
काफी देर होने के बाद भी जब भगवान ने भोग नहीं लगाया तो उसे चिंता हुई। क्या खीचड़े में घी की कमी रह गई या थोड़ा और मीठा होना चाहिए था? उसने और गुड़ व घी मिलाया और वहीं बैठ गई। लेकिन भगवान ने फिर भी नहीं खाया। तब उसने कहा, हे प्रभु आप भोग लगा लीजिए। मां-बापू पुष्कर नहाने गए हैं।
आपको जिमाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई है। इसलिए आपके भोग लगाने के बाद ही मैं खाना खाऊंगी। लेकिन भगवान फिर भी नहीं आए। फिर करमा उनसे शिकायत करने लगी...

करमा की शिकायत
वह बोली, मां-बापू जब जिमाते हैं तो भोग लगा लेते हो और आज इतनी देर कर दी! खुद भी भूखे बैठे हो और मुझे भूखी रखोगे। लेकिन भगवान फिर भी नहीं आए और करमा का खीचड़ा वहीं रखा हुआ था। करमा ने और इंतजार किया।
फिर बोली- तुम्हें मेरे हाथ से ही खीचड़ा खाना होगा। मां-बापू को आने में कई दिन लग जाएंगे। तुम जीम लो, वरना मैं भी भूखी ही रह जाऊंगी।

करमा का खीचड़ा खाने आए कन्हैया
दोपहर बीत गई, शाम होने लगी थी, लेकिन करमा ने कुछ भी नहीं खाया। आखिरकार कृष्ण को आना ही पड़ा और बोले, करमा, तुमने पर्दा तो नहीं किया! ऐसे भोग कैसे लगाऊं? यह सुनकर करमा ने अपनी ओढऩी की ओट की और उसी की छाया में कृष्ण ने खीचड़े का भोग लगाया। थाली पूरी खाली हो गई।
करमा बोली, भगवान इतनी-सी बात थी तो पहले बता देते। खुद भी भूखे रहे और मुझे भी भूखी रखा। इसके बाद करमा ने खीचड़ा खाया। अब तो रोज करमा खीचड़ा बनाती है और कृष्ण उसका भोग लगाने आते।
जब तक करमा के मां-पिता तीर्थ-यात्रा पर रहे, रोज यह सिलसिला चलता रहा। कुछ दिनों बाद दोनों पुष्कर से घर लौटे। देखा, जाते समय तो मटका पूरा गुड़ से भरा था। अब खाली कैसे? उन्होंने करमा को बुलाया और पूछा, बेटी, गुड़ कहां है?
करमा ने बताया कि रोज भगवान कृष्ण उसके पास आते और खीचड़े का भोग लगाते। कहीं मिठास कम न हो जाए, इसलिए खीचड़े में गुड़ कुछ ज्यादा डाल दिया। उसने पहले दिन हुई परेशानी के बारे में भी बता दिया।
यह सुनकर माता-पिता चकित रह गए। जिस ईश्वर के लिए वे तीर्थ-यात्रा करने गए थे, जिसे लोग न जाने कहां-कहां ढूंढ़ रहे हैं, उसे उनकी बेटी ने अपने हाथ से खीचड़ा जिमाया!
यह कैसे संभव है? उन्हें चिंता भी हुई कि बेटी बावली तो नहीं हो गई है। उन्होंने मन को दिलासा देने के लिए कहा शायद करमा ही पूरा गुड़ खा गई होगी। इस पर करमा ने कहा, अगर आपको यकीन नहीं है तो कल देख लीजिए। मैं खुद भगवान को भोग लगाऊंगी।
दूसरे दिन करमा ने खीचड़ा बनाया। गुड़ और घी डालकर थाली मंदिर में रख दी। ओढऩी से पर्दा किया और प्रार्थना की - हे ईश्वर, मेरे सत्य की रक्षा करना अब आपके हाथ में ही है।
भक्त की पुकार सुनकर भगवान का सिंहासन डोल गया और कृष्ण खीचड़ा खाने आ गए। जीवनराम और उनकी पत्नी यह दृश्य देखकर विस्मित थे। उसी दिन से करमा बाई जगत में विख्यात हो गईं।
जीवन के अंतिम दिनों में करमा बाई भगवान जगन्नाथ की नगरी चली गईं और वहीं रहने लगीं। वहां रोज भगवान को खीचड़े का भोग लगातीं और भगवान उनके हाथ से खीचड़ा खाने आते। आज भी भगवान जगन्नाथ को खीचड़े का ही भोग लगाया जाता है।