गुरुवार, 11 अगस्त 2016

वीर तेजाजी की प्रिय घोड़ी- लीलण


बिरखा रुत लागे सोवणी, कुरलावे मीठा मोर।
तेजागान रा जमघट लागे, गांव गांव ठोर ठोर।।
हद सोवणो खरनाल्यो, मुरधर रो मोती कहीजे।
सुर्रो मेरवाड़ा माणक ह, तेजल रो सत पूजीजै।।
जीवदया आपणो धरम है, गहणो आपणो धीर।
तेजल मानवता रो दिवलो है, केवे भक्त बलवीर ।।


गौभक्त महान यौद्धा श्री वीर तेजाजी के जन्म, जीवन संघर्ष, उनके अनमोल वचन, सद्कर्म, बलिदान दिवस जैसी तमाम जानकारियां हमारे ह्रदय में एक सुनहरी यादों व प्रेरक के रूप संरक्षित है। मगर जितनी जानकारी हमें वीर तेजाजी महाराज के संबंध में है, उतनी वीर तेजल की प्रिय घोड़ी व उनकी सबसे प्यारी सखी "देवात्मा लीलण" के बारे में नहीं है।
संत कान्हाराम जीे सुरसुरा तथा बलवीर जी मकराना की लेखनी के माध्यम से मैं इस देवात्मा लीलण की सामान्य जानकारी आपके साथ साझा कर रहा हूं.....
1.कान्हाराम जी की कलम से-
उस समय में 'लखी' नामक बंजारा अपना माल खरनाल परगने से होते है 'सिंध प्रदेश' ले जाया करता था। खरनाल परगने के भू-पति 'ताहड़ जी धौलिया' (वीर तेजाजी के पिताश्री) के यहां अकसर वह रूका करता था। लाखा के पास एक शुभलक्षणी सफेद रंग की दिव्य घौड़ी थी। जिसके गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी। साक्षात् महादेव की माया ही समझो कि जब एक बार वह सिंधप्रदेश जा रहा था तब खरनाल पलसे में एक खेजड़ी के वृक्ष के नीचे " विसं 1131आखातीज दोपहर सवा बारह बजे " महान यौद्धा वीर तेजाजी महाराज की इस प्रिय सखी का जन्म हुआ। दुख की बात कि लीलण को जन्म देते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गयी। लाखा ने अपनी बेबसी जताकर वह घौड़ी की बछिया ताहड़ जी को सौंप कर कहा कि गणपती अब आप ही इसे पाले पौसे। महादेव ने चाहा तो बड़ी होकर राजकुमार तेजल के बड़ी काम आयेगी। मैं दर दर भटकने वाला व्यापारी इसे नहीं पाल पाउंगा। ताहड़ जी ने उस प्यारी छोटी सी लीलण को अपने पास रखा, उसे गौमाता का दूध पिलाकर बड़ा तिया। गौमाता के दूध का प्रताप था कि इस लीलण में गाय की चेतना, समझदारी, वफादारी, नागौरी नस्ल सी बलिष्ठता, व देवत्व की बढोतरी होती गई।
2. बलवीर जी की कलम से-
तेजल राजकुमार सब भाईयों में छोटे व सबके चहेते थे। इसलिए वे लीलण के साथ पूरा पूरा दिन खेलते। उसे सखा सा प्यार व मां सा दूलार देते। अपनी भौजाई व माता के आभूषणों से कई बार खेल खेल में लद देते। पूरा गणराज्य इन दोनो का प्रेम देखकर अभीभूत हो उठता था। आभूषणों से सुसज्जीत वह प्यारी बछिया जब तेजस्वी राजकुमार को सवारी करवाती तो बरबस प्रजा के मुख से निकल पड़ता की "तेजल सखी सिणगारी" .. इसलिए लीलण का अन्य नाम "सिणगारी" भी कहा जाता है। वक्त गति मान है। बिना रूके चलता है। वक्त के साथ साथ दोनो सखा बड़े होते गये। भूपती पुत्र होने के नाते ''तेजल राजकुमार" के लिए शिक्षा व शस्त्र कला में पारंगत होना आवश्यक था। अत: राजकुमार को ननिहाल "त्योद" (किशनगढ) भिजवा दिया गया। वहां भी वे अपनी प्यारी सखी लीलण को साथ लेकर गये। एक परछाई की भांती लीलण जीवन पर्यन्त अपने स्वामी के संग रही। तेजल राजकुमार जंगल में गाये चराने जाते तो सभी गायों की अगुवाई करती। उनके साथ संवाद करती, क्रिड़ा करती। तेजाजी के साथ बैठकर गुरू "मंगलनाथ जी" के उपदेशों को ह्रदय में उतारती। तेजल राजकुमार के मामाश्री के संरक्षण में तेजल वीर को घुड़सवारी सिखाई गई। लीलण को युद्धक्षेत्र की विभिन्न कलाओं में पारंगत किया गया। इस प्रकार ननिहाल में दोनों सखाओं ने साथ साथ शिक्षा दिक्षा ग्रहण की।
तत्पश्चात "भूपती ताहड़देव जी' की हत्या, तेजाजी का ननिहाल से वापस आना। गणराज्य का भार संभालना। पहली बरसात में माता द्वारा बीजारी करने का कहना, भाभी के साथ गुस्सा होना, बहन राजल को पिहर से लाना व तमाम प्रतिरोधों के बावजूद अपनी अर्द्धांगीनी पेमल को लेने ससुराल शहर पनेर जाने जैसी घटनाएं होती है। शहर पनेर जाते वक्त इंद्रदेव के प्रकोप से रास्ते रोकते नदी नालों से स्वामिभक्त लीलण ने ही वीर तेजल को तरा था। पनेर के रायमल मूहता के बगीचे को लीलण द्वारा तहस नहस करने के हास्य वृतांत आज भी बड़े बुजुर्ग बड़े चाव से सुनाते है, तेजा गायक मीठी आवाज में इस घटना को लयबद्ध करते है। तत्पश्चात 'लाछा गूजरी' के गौधन रक्षार्थ युद्ध क्षेत्र में वीर तेजाजी के साथ रणकौशल दिखा शत्रुओं को नाश करना जैसे अनेको वृतांत मारवाड़-मेरवाड़ा के कण कण में विसरे पड़े है। वचनबद्ध तेजाजी जब नागदेवता की बांबी पर जाते है तब ससम्मान अपना अगला पैर उपर उठाकर नागदेवता को अपने उपर असवार होने का निमंत्रण देने जैसे प्रसंग अन्यत्र कही नही मिलते। नागदेवता द्वारा तेजाजी को डसने के बाद जब "तेजल-लीलण संवाद" होता है। वह इस अनमोल जीवन चरित्र का सबसे ह्रदय विदारक पल है। बहुत ही मार्मिक कि अगर बंद आंखो से उस पल का काल्पनिक चित्रण करे तो निश्चित ही आंखो से अश्रूधारा फूट पड़े। लीलण को तेजल वीर ने अंतिम कार्य अपनी विरगती का समाचार गांव खरनाल पहुंचाने का सौंपा।
माता पेमल लीलण से बोली-
कि तू बहुत सौभाग्यशाली है जो इस देवपुरूष के साथ जन्म से रही। अभागी तो में हू जो घड़ी दो घड़ी का ही साथ मिला।
"बूढा बडां ने कहिजै पांवाधौक म्हारी लीलण ऐ,
सासुजी ने किजै पगां लागणां,
नणदल राजल न मिलणो कहिजै लीलण म्हारी ऐ,
धीरज धारण की कहीजै अरजड़ी"
खरनाल जाते वक्त सखी सिणगारी ने परबतसर तालाब की पाल पर जल ग्रहण करके कुछ पल आराम किया था। भादवा सुदी 11 वि स 1160 को लीलण खरनाल राज्य के माणक चौक में आके जड़वत सी खड़ी हो गई। उनके नयनों से निरंतर अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी। परिवार जनों ने उस बेबस सखी के दुख को समझ लिया। माता रामकुंवरी के चरणों में शीश नवाकर, बहन राजल की गोदी में सर रखकर अपने अश्रुमोती डालने के पश्चात लीलण खरनाल के "धुवा तालाब" की पाल पर आकर बैठ गई। और अपने स्वामी, सखा और अपने प्राणों से प्यारे तेजल को याद करते अपना देह त्याग दिया।
जिस स्थान पर लीलण ने प्राण त्यागे वहां आज छोटा मगर भव्य मंदिर बना हुआ है। जिसका निर्माण आज से 5-6 वर्ष पूर्व तेजाजी के वंशज "हरिराम जी पुत्र पदमाराम जी धौलिया" ने करवाया था।

"मैं इस वीरत्व स्वामीभक्ती की प्रतीमूर्ती के बारे में जितना लिख पाया हूं वह शायद बेहद ही कम है। जितना वैभवशाली जीवन चरित्र वीर तेजाजी महाराज का था उतना ही उनकी सखी "लीलण/सिणगारी" का।शत शत नमन है स्वामीभक्ती की मिशाल देवात्मा लीलण को"- तेजाभक्त बलवीर
जय वीर तेजा जी
जय वीर बिग्गा जी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें